Shri Jain Shwetamber Saatbees Devri Kila Tirth, Fort Road, Gandhi Nagar, Chittaurgarh (Rajasthan)
Gandhi Nagar, Chittaurgarh, RAJASTHAN
Temple History
चित्तौड़गढ़ दुर्ग के सभी मंदिरों में श्री सातबीस देवरी के नाम से प्रसिद्ध ये मंदिर अपने भव्य आकर्षक रूप में अपनी आभा आज भी बिखेर रहे है एवं जैन धर्म के गौरव एवं समृद्धि की गाथा कह रहे है। सीमंदर शाह नाम के एक ब्राह्मण हलवाई ने वि. सं. 1004 तद्नुसार सन् 947 में केरापुरपट्टन में (आज का भुपाल सागर या करेडा पाश्र्वनाथ) आकर व्यापक शुरू किया। केरापुरपट्टन तब एक बड़ा व्यापारिक केन्द्र था। लक्खी नाम का एक करोड़पति बंजाय वहाँ ठहरा हुआ था। एक दिन सीमंदर लक्खी बंजारा के ठिकाने के सामने से निकल रहा था तो उसने बणजारे को मिठाई का नजराना किया। बणजारा तब अपनी पत्नी से बड़े क्रोध में झगड़ रहा था, क्योंकि उसकी पत्नी ने उसे उलाहना दे दिया था कि तेरी लक्ष्मी मेरी वजह से है। मेरे आने के पहले तो तेरे पास एक हजार बैल भी नहीं थे। आज तू मेरे कारण ही एक लाख बैलों से व्यापार कर रहा है और लक्खी बणजारा कहला रहा है। बणजारे ने झगड़ा बढ़ने पर अपनी पत्नी को सीमंदर को सौप कर घर से निकाल दिया। सीमंदर ने रजामंदी से उसकी पत्नी को अपने यहाँ रख लिया। पत्नी बहुत भाग्यशाली थी, उसके आते ही सीमंदर के भाग्य पलट गये, वह बहुत अमीर बन गया। अब उसे धन की सुरक्षा की चिंता सताने लगी, इसलिए वह चित्तौड़ के रावल किरण दत्त के पास गया। उन्होंने उसका धन अपनी सुरक्षा में रखने से इंकार कर दिया। तब किसी ने उसे राजगुरू श्री शांतिसूरि भट्टारक के शिष्य भी यशोभद्र सूरि से इस हेतु मिलने को कहा। यशोभद्र सूरि बड़े प्रभावशाली एवं चमत्कारी आचार्य थे। उन्होंने सीमंदर से कहा कि तुझे भाग्य से लक्ष्मी मिली है तो इसका सदुपयोग कर व इस धन से जैन पंचतीर्थ बनवा, इससे तेरा इहलोक व परलोक सुधर जावेगा, साथ में मै तुझे जैन धर्म भी अंगीकार करवा दूंगा। सीमंदर ने गुरु महाराज के आशीर्वाद एवं निर्देशानुसार सन् 957 में चित्रकूट, करेडा (भूपाल सागर), पलाना (खेमली के पास), बागौर (नाथद्वारा से 3 किमी दूर) और खाखड़ (उदयपुर-फलासिया के मार्ग में) पांचों स्थानों पर सन् 957 में निर्माण कार्य प्रारंभ करवा कर 15 वर्षों में सन् 972 में पूर्ण करवा दिया। प. पू. आचार्य यशोभद्रविजय बड़े प्रसन्न हुए और पांवों जिनालयों की प्रतिष्ठा एक ही दिन वैशाख सुदी एकम् सम्वत् 1029 (सन् 972) को करने की स्वीकृति प्रदान की। तय तिथि पर बड़े भव्य समारोहों में पांचों जिनालयों की प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई और सिमंदरशाह को जैन धर्म में प्रवेश देकर उसे तलेसरा गौत्र प्रदान की, क्योंकि उसने सात बीस देवरी मंदिर की नीव में मजबूती के लिए चार हजार मण तेल डाला था। सातबीस देवरी के इस तीन मण्डप वाले पश्चिमोभिमुख मंदिर के चारों ओर गलियारों में 26 देवरियाँ होने से इसे सातबीस देवरी मंदिर कहा जाने लगा। मुख्य मंदिर में गर्भगृह, अन्तराल, सभा मण्डप, मण्डप, त्रिक मंउप एवं मुख मंडप युक्त मंदिर का जंघा भाग देवी देवताओं एवं अप्सराओं की मूर्तियों से अलंकृत है। मूल मंदिर में तथा गलियारों की देवरियों में 47 पाषाण मूर्तियाँ है। मूलनायक आदिनाथ भगवान के दाएँ बाएँ भगवान शान्तिनाथ एवं अजीतनाथ की प्रतिमाएँ है। मुख्य मंदिर के बाहर सेवा के दृश्य है। नीचे के माण्डप के वितान में कई सुन्दर दृश्य है इसमें 16 नर्तकियों को अंकित किया हुआ है। यहाँ भगवान आदिनाथ की जीवन-लीला के कई दृश्य उत्कीर्ण है। मंडोवर पर कई प्रतिमाएँ बनी है। नीचे के मुख्य भाग में चकेश्वरी, लक्ष्मी, क्षेमकरी, ब्राह्मणी, महासरस्वती आदि की प्रतिमाएँ है। मंदिर की बाहरी दीवारों पर विविध प्रकार के कोरणी, तोरणद्वार, मण्डप आदि सभी पर की गई शिल्पकारी स्तब्धकारी है जो असाधारण कला कौषल का भव्य प्रदर्शन करती है। गुंबज में जड़ी हुई देवियों की सजीव पुतलियाँ शिल्पियों की मुलायम छेनियों से सजीव लगती है। सम्पूर्ण मंदिर में 163 पत्थर के कलात्मक स्तंभ है जो मेवाड़-देलवाड़ा, रणकपुर, कुंभारिया आदि मंदिरों की शिल्प कला के समान है। मंदिर के जैन स्थापत्य समकालीन वास्तुशैली से भिन्न नहीं है किन्तु इसकी पवित्र सादगी, कामुक दृश्यों का अभाव, विपुल अलंकरण एवं स्थान के सात्विक वातावरण में अनोखा आकर्षण है। इस सात बीस देवरी मंदिर समूह के पूर्व में विशाल प्रांगण के पश्चात् दो पूर्वाभिमुख मंदिर है जिनकी बाहरी दीवारों का शिल्प चमत्कृत करने वाला है। उत्तर दिशा के पाश्र्वनाथ प्रभु के मंदिर का निर्माण 1448 सन् में भंडारी श्रेष्ठी (सभवतः वेला) जिन्होंने श्रृंगार चंवरी का भी जीर्णोद्धार कराया था, द्वारा निर्मित है। इसके गंभारे में 3 मूर्तियाँ है। गंभारे के बारह के बड़े आलियों मंे उत्तर में चित्तौड़ उद्धारक आचार्य विजय नीतिसूरिश्वरजी की एवं दक्षिण में युगान्तरकारी आचार्य हरिभद्र सूरिजी की सुन्दर एवं भव्य पाषाण मूर्तियाँ विराजित है जिनकी प्रतिष्ठा आचार्य विजयहर्षसूरि द्वाा सन् 1955 में की गई थी। मंदिर के प्रवेश द्वार पर लेख है जिसमें सन् 198 में अहमदाबाद के श्री मगनलाल खुशालदास सुतरिया द्वारा प्रतिष्ठा का उल्लेख है, जिन्होंने 1941 में मूल मंदिर में भी जीर्णोद्धार/प्रतिष्ठा करवाई थी। दक्षिण दिशा के पूर्वाभिमुख पाश्र्वनाथ मंदिर का निर्माण तोलाशाह दोशी व उनके पुत्र कर्माशाह दोशी द्वारा सन् 1530 में करवाया गया था। इसके गंभारे में तीन पाषाण मूर्तियाँ है। देवरी में पद्मावती मां की सुन्दर मूर्ति है। बाहर देवरी में दो एवं प्रभु की एक पाषाण प्रतिमा कुल 7 प्रतिमाएँ है। श्री सातबीसदेवरी जैन मंदिर के मूल मंदिर का निर्माण कार्य होने पर वैशाख सुदी एकम संवत् 1029 तद्नुसार सन् 972 को आचार्य यशोभद्र सूरिजी द्वारा भव्य प्रतिष्ठा करवाई गई थी। तत्पश्चात् इसके भव्य परिसर में पिछले एक हजार से अधिक वर्षों में समय पर निर्माण/जीर्णोद्धार एवं प्रतिष्ठाएँ होती रही। पहले 26 देवरियाँ, फिर अलग-अलग समय पर देवरी नं. 1 एवँ 26 से लगती बड़ी देवरियों का अलग-अलग समय पर निर्माण, फिर पीछे के पूर्वाभिमुख दोनों मंदिरों का अलग समय पर निर्माण एवं जीर्णोद्धार होते रहे। बड़ा जीर्णोद्धार एवं प्रतिष्ठा का कार्य संवत् 1998 से संवत् 2005 तक (सन् 1941 से 1948) तक चलता रहा। इन सात वर्षों के जीर्णोद्धार का आर्थिक व्यय अहमदाबाद के सेठ भगुभाई चुन्नीलाल सुतरिया तथा भोगीलाल, मगनलाल सुतरिया द्वारा चित्तौड़ उद्धारक श्री विजयनीतिसूरि के सदुपदेश से किया गया। जीर्णोद्धार के पश्चात् मुख्य मंदिर की भव्य प्रतिष्ठा प. पूज्य आचार्य विजयनीति सूरिश्वर जी द्वारा ही सम्पन्न होनी थी पर दुर्भाग्य से आचार्यश्री का रणकपुर से चित्तौड़गढ़ प्रतिष्ठा प्रसंग हेतु पधारने के बीच माघ वदी तीज सं. 1998 (सन् 1941) को एकलिंग जी में अचानक काल धर्म हो गया। इस हृदय विदारक दुर्घटना के उपरान्त आचार्यश्री की इच्छानुसार प्रतिष्ठा समारोह उन्ही के द्वारा प्रदत्त मुहूर्त माघ सुदी द्वितीया सं. 1998 (सन् 1941) को ही सम्पन्न किया गया, जिसे भव्य समारोह में पूज्य आचार्य विजयहर्षसूरि ने पूरा किया। इस भव्यातिभव्य समारोह में आचार्य विजयहर्ष सूरिजी के 18 ठाणा के अलावा पूज्य उपाध्याय दयाविजय (आचार्य श्री के गुरूभाई) मुनि चरणविजय, मुनि मलयविजय, पन्यास मनोहर विजय जी, पन्यास सम्पतविजय आदि ब्यावर से पधारे। मुनि भदं्रकार विजय, मुनि उम्मेद विजय, मुनि चंपकविजय आदि संत उपस्थित थे। विधिकारक श्री चंदूलाल मोतीलाल थे। संवत् 1998 की पौष वदी ग्यारस को सिरोही निवासी सेठ हीरालाल एवं तेरस को अहमदाबाद निवासी गोकुलचंद तेजपाल की ओर से स्वामीवात्सल्य का आयोजन हुआ। माघ सुदी एकम को जामनगर निवासी चुन्नीलाल लक्ष्मीचन्द संघवी द्वारा रथ यात्रा एवं स्वामीवात्सल्य व माघ सुदी द्वितीया को प्रतिष्ठा एवं समस्त कार्यक्रमों का लाभ सेठ भगुभाई चुन्नीलाल सुतरिया अहमदाबाद वालों के द्वारा लिया गया। गुजरात, मुंबई, अहदामबाद, मारवाड़, मेवाड़ मालवा आदि क्षेत्रों से हजारों श्रावक-श्राविकाएँ भी इस अनूठे आयोजन में सम्मिलित हुए थे। ऐसा भव्यातिभव्य समारोह दुर्ग पर पूर्व में संभवतः आचार्य जिनदत्तसूरि के आचार्य पद ग्रहण करने के समय सं. 1169 वैशाख कृष्णा छठ (सन् 1112) को उपस्थित हुआ था जब धोलका नरेश स्वयं अपनी पूरी राज्य परिषद् के साथ समारोह में पधारे थे। रामपोल से उत्तर की ओर जाने पर रतनसिंह राजमहल एवं रत्नेश्वर तालाब के पास छोटा सा कलात्मक भगवान शांतिनाथ जी का मंदिर है जिसे सन् 1175 में बनाये जाने का लेख है। भगवान श्री शांतिनाथ की 31 इंच सुन्दर प्रतिमा की प्रतिष्ठा सन् 1444 में सोमसुन्दरसूरि द्वारा किये जाने का उल्लेख प्रतिमाजी पर है। इसी परिसर से जुड़े देरासर में भगवान महावीर मूलनायकजी है जिनकी श्याम प्रतिमा पर सन् 1498 में जिनदत्तसूरिजी (द्वितीय) द्वारा प्रतिष्ठा करवाए जाने का उल्लेख है। इसी प्रतिमा के दांये अजितनाथ की प्रतिमा की प्रतिष्ठा 1053 सन् में गुणचन्दसूरिजी का लेख है। मूलनायक के बांये सुमतिनाथ भगवान की प्रतिमा है जिसकी प्रतिष्ठा सन् 1141 में कनकचन्द्र द्वारा कराये जाने का लेख है। आचार्य श्री जिनवल्लभसूरि के समय उनके सदुपदेश से सन् 1110 तद्नुसार संवत 1167 में कई संदर्भ लेखों में भगवान महावीर स्वामी जी के मंदिर बनाये जाने का उल्लेख मिलता है। संभवत्ः यह वही मंदिर है। उपरोक्त दोनों मंदिरांे का जीर्णोद्धार सन् 1914 में फतहसिंहजी दरबार के समय शाह मोतीलाल चमनलाल चपलोत द्वारा करवाया गया था।
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Temple Timings
Morning Hours
Morning: 5:30 AM - 11:30 AM
Evening Hours
Evening: 5:30 PM - 8:30 PM
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Train: Chittaurgarh Junction Railway Station
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Air: Udaipur Airport
By Road
It is well connected with roads
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Chittor also has been a land of worship for Meera
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