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Panch Sutra

पंच सूत्र | Panch Sutra

Stotra

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Lyrics of Panch Sutra by Stavan.co

|| प्रभु का स्वरूप ||

णमो वीयरागाणं, सव्वप्पूणं

देविदपूईआणं,

जहड्डिअवत्थुवाईणं,

तेलुक्कगुरूणं

अरिहंताणं भगवेताणं ॥१॥


राग द्वेष से रहित, सर्वज्ञ

देवेन्द्रो से पूजित

सत्यवस्तु के प्रूपक

तीन लोक के गुरु

अरिहन्त भगवन्तों को नमस्कार हो ।


|| संसार स्वरूप ||

जे एवमाईवखति

इह खलु अणाईजीवे,

अणाई जीवस्स भवे,

अणाई कम्मसंजोग निव्वत्तिए

दुक्खरूवे, दुक्खफले, दुक्खाणुबंधे ॥२॥


वे अरिहन्त भगवान इस प्रकार कहते हैं -

इस लोक में जीव अनादि है।

जीव का संसार भी अनादि है,

जीव का अनादि संसार कर्म संयोग से बना हुआ है।

वह संसार दुःखरूप है, दुःखफलक है और दुःखकी

परम्परावाला है ॥


|| दुःख मुक्ति के उपाय ||

एअस्स ण बुद्धिमति

शुद्ध धम्माओ,

शुद्ध धम्मसंपत्ति

पावकस्स विगमाओ, पावकम्मविगमो

तहाभवत्ताई भावाओ ॥३॥


इस संसार का नाश

शुद्ध धर्म से होता है।

शुद्ध धर्म की संप्राप्ति

पाप कर्म के नाश से होती है । पाप कर्म का नाश

तथा भव्यत्वादि के परिपाक से होता है ।


|| तथाभव्यत्व का परिपाक ||

तस्स पुण

चिंतगसाहणाणि

चउसरणगामणं

दुक्कड गरिहा

सुकडाण सेवण ॥४॥


उसको (तथा भव्यत्वको)

परिपक्व करने के साधन तीन है ।

(१) चार शरण का स्वीकार करना

(२) दुष्कृत की गर्हा-निंदा करना

(३) तथा सुकृत की भारोभार अनुमोदना करना


|| सूत्र कब पढ़ना ||

अओ कायव्वमिणं

होउकामेण

सया सुप्पणिहाणं

भुंजो भुंजो संकिलेसे

तिकाल मंसाकिलेसे ॥५॥


तथाभव्यत्व का परिपाक करने वाला होने से

इस सूत्र का मोक्षार्थी भव्य जीवों को

हमेशा मन-वचन-काया की एकाग्रतापूर्वक

चित्त संक्लेश के अवसर में बार बार और

संक्लेश न हो तब सुबह-दोपहर-शाम

इस प्रकार तीन बार पाँठ करना चाहिए।


|| अरिहंत शरण ||

जावज्जीवं मे भगवंतो परमतिलोगणाहा

अणुत्तरं पुण्णसंभारा

खीणरागदोसमोहा, अचिंतचिंतामणी

भवजलहिपोआ

एगंतसरणा अरहंता सरणं ॥६॥


जीवन पर्यंत मुझे समय ऐश्वर्यादिक से युक्त

ऐसे परम त्रिलोकनाथ,

सर्वोत्तम पुण्य के समूहवाले

क्षय हो गये हैं राग, द्वेष और मोह

जिसके ऐसे अचिंत्य चिंतामणि समान,

संसार रूपी समुद्र को पार करने में जहाज समान

एकांत शरण करने योग्य ऐसे अरिहंत का

मुझे शरण हो ।


|| सिद्ध शरण ||

तहा वुड्ढिजरामरणा, अवेसकम्मकलंका,

पणहुवाबाहा, केवल-णाण-दंसणा

सिद्धिपुर निवासी, निरुवम सुह समाया

सव्वहा कयकिच्चा,

सिद्धा शरणं ॥७॥


तथा वृद्धावस्था-मरणादि से रहित,

कर्मरूपी कलंक से रहित ।

सर्व पीड़ाओं से रहित, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी

मुक्ति नगर में निवास करने वाले, अनुपम

सुख से युक्त

सर्वथा कृतार्थ बने हुए ऐसे

सिद्धों का मुझे शरण हो ।


|| साधु शरण ||

तहा पसंतगंभीरसया

सावज्जजोगविरया, पंचविहायार जाणगा,

परोवयारनिरया, पउमाइ निद्दंसणा,

झाणज्झयणसमया,

विसुद्धझ्माणभावा साहू सरणं ॥८॥


तथा प्रशांत एवं गंभीर चित्तवाले

पाप युक्त प्रवृत्ति से अटके हुए,

पांच आचार (पालन करनेवाले) को जाननेवाले

परोपकार करने में तत्पर, पद्म कमलादि की उपमावाले.

ध्यान और स्वाध्याय में लीन

भाव शुद्धि को पाने वाले साधु भगवंतो

का मुझे शरण हो ।


|| धर्मशरण ||

तहा सुरासुर मणुअभड्डुओ, मोहतिमिरसुमाली,

रागदोषविसपरममंतो, हेऊसयल कल्लाणाणं

कम्मवण विहावसु

साहगो सिद्धभावस्स, केवलिपण्णत्तो धम्मो,

जावज्जीवं मे भगवं सरणं ॥९॥


तथा: सुर असुर और मनुष्यों से पूजित, मोहरूप

अंधकार को नाश करने में सूर्य समान,

राग द्वेष रूपी विष को विनाश करने में उत्कृष्ट

मंत्रसमान, समग्र कल्याण का कारण,

कर्मरूपी जंगल को जलाने में अग्नि समान,

सिद्धभाव का साधक, केवली भगवत द्वारा

प्ररूपित धर्म का

मुझे यावज्जीव शरण हो ।


|| दुष्कृत गर्हा ||

सरणमुवगओय एएसिं गरिहामि दुक्कडं

जणं अरहंतेसु वा,सिद्धेसु वा,आयरिएसु वा

उवज्झाएसु वा, साहूसु वा

साहुणीसु वा, अन्नेसु वा

धम्मठाणेसु माणिज्जेसु, पूयणिज्जेसु


अरिहंत आदि के शरण को अंगीकार करके

अब मैं दुष्कृत की निंदा करता हूँ ।

जो दुष्कृत अरिहंत संबंधी, सिद्ध संबंधी, आचार्य संबंधी

उपाध्याय संबंधी, साधु संबंधी

साध्वी संबंधी, दूसरे भी

धर्मस्थान संबंधी, माननीय और पूजनीय संबंधी


तहा माइस वा, पिइस वा, बंधुस वा

मित्तेसु वा, उववारीसु वा, ओहेण वा जीवेसु

मग्गाहिएसु अमग्गाहिएसु

मग्गासाहेणुसु अमग्गासाहेणुसु

जंकिंचि वितहमायरियं अणायरिअंव


तथा माता संबंधि, पिता संबंधि, बंधु संबंधि

मित्र संबंधि, उपकारी संबंधि,

सामान्य व्यक्ति संबंधि

समकित आदि मार्ग मे रहे हुए जीव संबंधि

अथवा मार्ग में नहीं रहे हैं ऐसे सर्व जीव संबंधि

मोक्ष मार्ग के साधनभूत पुस्तकादि संबंधि,

मार्ग में असाधनभूत तलवारादि संबंधि

जो कुछ भी विपरीत आचरण किया हो,

आचरण के लिए अयोग्य


अणिच्छअव्व पावं पावाणुबंधि

सुहुमं वा बायरं वा,

मणेण वे, वायाए वा, काएण वा

करें वा, कारावेंअ वा, अणुमोइअं वा

रागेण वा, दोसेण वा, मोहेण वा


और मन के द्वारा नहि इच्छने लायक

ऐसा पापानुबंधी पाप

छोटा अथवा बड़ा ।

मन के द्वारा, वचन के द्वारा, काया के द्वारा

मैंने किया हो, दूसरों के पास कराया हो,

दूसरों ने किये हुए का अनुमोदन किया हो।

वह भी राग द्वारा, द्वेष द्वारा अथवा मोह द्वारा


इत्थं वा जम्मे, जम्मंतरेसु वा

गरहिअमंअं, दुक्कडमंअं

उज्झिअव्वमंअं, विउआणिअं मए

कल्लाणमित्तगुरुभगवंतवयणाओ,

अवमंअति रोइअं सदाए,


इस जन्म में अथवा दूसरे जन्म में

(जो कुछ विपरीत, गलत आचरण किया हो)

वह गर्हा-निंदा करने लायक है, वह दुष्कृत

(अधर्म रूप है) त्याज्य है, इस प्रकार मैंने

कल्याणमित्र गुरु भगवंतों के वचन से जाना है.

यह इस प्रकार ही हैं ऐसी श्रद्धापूर्वक मुझे रुचिकर लगा है।


अरिहंत सिद्धसम्मक्ख,

गरहामि अहमिण, दुक्कडमंअं

उज्झिअव्वमंअं

इत्थ मिच्छामि दुक्कडं

मिच्छामि दुक्कडं, मिच्छामि दुक्कडं ॥१०॥


इस कारण से अरिहंत और सिद्ध के समक्ष

मैं यह सर्व पाप की गर्हा करता हूँ यह दुष्कृत है।

यह त्याग करने लायक है ऐसा अंतःकरण से मानता हूँ ।

इस संबंधि मेरा पाप निष्फल बनो,

मेरा पाप मिथ्या बनो, मेरा पाप मिथ्या बनो ।


|| दुष्कृत गर्हा की सार्थकता की प्रार्थना ||

होऊमे ऐसा सम्म गारिहा

होऊ मे अकरणनियमो

बहुमय मम्मेति, इच्छामि अणुसट्ठि,

अरहंताण भगवंताण,

गुरूणं कल्लाणमित्ताणं ति ॥११॥


मेरी दुष्कृत गर्हा सम्यक रूप से अर्थात् भावपूर्वक हो

वापिस ऐसा पाप नहीं करने का मुझे नियम हो,

यह दोनों बात मुझे बहुत पसंद है।

इसलिए मैं अरिहंत भगवंतों की तथा

कल्याण-मित्र गुरुओं की हितशिक्षा को इच्छता हूँ ।


|| मुमुक्षु की भावना ||

होऊमे ऐएहि संजोगो

होऊ मे एसा सुपत्थणा,

होऊ मे इत्थं बहुमाणो

होऊ मे इओ मोक्खबीअति ॥१२॥


मुझे अरिहन्त आदि का उचित योग मिले,

मेरी यह प्रार्थना सफल बने,

इस प्रार्थना में मुझे बहुमान हो,

इस प्रार्थना से मुझे मोक्ष के बीज रूप पुण्यानुबंधि पुण्य

की प्राप्ति हो ।


पत्तेसु एएसु अहं सेवारिहे सिआ,

आणारिहे सिआ,

पडिवत्तिजुए सिआ,

निरइआरपारओ सिआ

सविग्गो जहासत्तिए सेवेमि सुकडं


अरिहंत आदि का उचित योग हो तब

मैं उनकी सेवा करने योग्य बनूं,

उनकी आज्ञा पालने लायक बनूं,

उनकी सेवा भक्ति से युक्त बनूं,

उनकी आज्ञा का निरतिचार पालन करने वाला बनूं

मोक्ष की इच्छा वाला मैं यथाशक्ति सुकृत करता हूँ ।


|| सुकृत अनुमोदना ||

अणुमोयामि सव्वसिं अरहंताण अणुड्डाणं,

सव्वसिं सिद्धाण सिद्धभाव

सव्वसिं आयरिआण आयारं,

सव्वसिं उवज्झायाण सुत्तप्पयाणं,

सव्वसिं साहूणं साहुकिरिअं ॥१३॥


सर्व अरिहंतों के करुणाभाव, धर्मोपदेश आदि

अनुष्ठानों की अनुमोदना करता हूँ ।

सर्व सिद्धों के अव्याबाध(पीड़ारहित) आदि

सिद्धस्वरूप की अनुमोदना करता हूँ

सर्व आचार्यों के ज्ञानाचारादि आचारों

की अनुमोदना करता हूँ ।

सर्व उपाध्यायों की द्वादशांगज्ञ सूत्र प्रदान

की अनुमोदना करता हूँ ।

सर्व साधुओं की सुन्दर स्वाध्याय आदि

क्रियाओं की अनुमोदना करता हूँ ।


सव्वसिं सावगाणं मोक्खसाहणजोओ,

सव्वसिं देवाण, सव्वसिं जीवाण,

होइकामाणं कल्लाणासियाणं

मग्गसाहणजोओ ॥१४॥


सर्व श्रावकों की मोक्ष के साधनभूत वैयावच्च

आदि व्यापारों की अनुमोदना करता हूँ ।

सर्व देवों की, सर्व जीवों की

मोक्ष की इच्छावाले एवं शुभ आशयवाले सभी के

मोक्ष साधन के शुभ व्यापारों की

मैं अनुमोदना करता हूँ ।


|| अनुमोदना में दृढ़ता ||

होऊ मे एसाअणुमोअणा

सम्मं विहिपुव्विआ, सम्मं सुदासया

सम्मं पडिवत्ति रूवा, सम्मं निरइयारा

परम गुणजुत्त

अरहंताई सामन्थओ


मेरी यह ऊपर बताई हुई अनुमोदना

सम्यक विधिपूर्वक हो,

कर्म के विनाश द्वारा शुद्ध

आशयवाली बनो ।

सम्यक क्रिया के स्वीकार रूप बनो, अच्छी

तरह निर्वाह करने से सम्यक निरतिचार बनो ।

उत्कृष्ट गुणों से युक्त ऐसे

अरिहंत सिद्धादि के सामर्थ्य से मेरी

यह अनुमोदना अच्छी बनो ।


|| प्रभु की महिमा ||

अचित्सक्तिजन्ता हि ते

भगवन्तो विभागा

सद्वर्णू

परम कल्याणा

परम कल्याणहेतु सताण् ॥८५॥


अचिन्त्य शक्ति से युक्त

अरिहंत भगवंत वीतरागे हैं ।

सर्वज्ञ हैं ।

परम कल्याण को करने वाले हैं ।

जीवों के उत्तम कल्याण के हेतु हैं ।


|| अपनी भावना ||

मुझे अमिन्न पावे,

अणाइमोहवासिए

अणभिन्ने भावओं

हिअहिआण अभिन्ने सिआ,

अहिअनिवित्तिसिआ, हिअपवित्ते सिआ,


लेकिन मैं मूढ़, पापी

अनादि से मोहवासित

भाव से यानी परमार्थ से अज्ञानी हूँ ।

अब अरिहंतादि के सामर्थ्य से मैं हित-अहित

को जाननेवाला बनूं।

हित से नियुक्त बनूं, हित में प्रयुक्त बनूं ।


आराहगो सिआ, उचिअपवित्तीए, सव्वसत्ताणं

सहिअति

इच्छामि सुकडं, इच्छामि सुकडं

इच्छामि सुकडं ॥१६॥


सर्व प्राणीयों के प्रति उचित वर्तन द्वारा आराधक बनूं

क्योंकि उसमें मेरा हित है ।

मैं मुक्त को इच्छता हूँ, मैं मुक्त को इच्छता हूँ ।

मैं मुक्त को इच्छता हूँ।


|| सूत्र पठन से अशुभ कर्म का नाश ||

एवमेअं सम्मं पढमाणस्स,

सुणमाणस्स, अणुप्पेहमाणस्स

सिद्धिलीभवति, परिहायति

खिज्जति असुहकम्माणुबंधा


इस प्रकार इन सूत्रों का अच्छी तरह संवेग

सहित पाठ करनेवाले,

दूसरों के पास से सुनने वाले, अर्थ का

स्मरण करने वाले मनुष्य के

अशुभ कर्म के अनुबंध ढीले पड़ते हैं,पतले पड़ते हैं ।

एवं आत्मा में से कर्म पुद्गल दूर ही जाते हैं।


निरणुबंधे वा असुहकम्मं

भग्गासिमच्छे सहपरिणामेण

कडगबद्धे विभ विसे

अप्पफले सिआ,

सुहवणिज्जे सिआ, अणुणभावे सिआ॥१७॥


अशुभ कर्म अणुबंध रहित बन जाने से जो कुछ थोड़े

बहुत अशुभ कर्म बचे हैं वे भी

शुभ परिणाम के द्वारा भग्न सामर्थ्य वाले बन जाते हैं ।

मंत्र के प्रभाव से कंकण से बांधे हुए विष की तरह

अल्प फलवाला यानी थोड़ा फलवाला बनता है ।

अतः सुखपूर्वक संपूर्ण रूप से दूर कर सकते हैं,

वापिस बंध न हो ऐसा बनता है।


|| सूत्र पठने से कुशलानुबंधी पुण्य बंध ||

तहा आसगलिज्जति

परिपोसिज्जति

निम्मविज्जति सुहकम्माणुबंधा

साणुबंधं च सुहकम्मं

पगिहं पगिहं भावज्जंअं नियमफलयं


तथा शुभकर्म के अनुबंध इकट्ठे होते हैं ।

पुष्ट होते हैं तथा प्रकृष्ट बनते हैं।

शुभ कर्मानुबंध का निर्माण होता है ।

शुभेभाव से उपार्जन किया हुआ सानुबंध

शुभकर्म

प्रकृष्ट बनता है एवं प्रकृष्ट भाव से उपार्जित

होने से अवश्य फल देने वाला बनता है ।


सुपउत्ते विअ महाग्गए

सुहफले सिआ,

सुहपवत्तगे सिआ,

परम सुहसाहगे सिआ

अओ अपडिबंधमंअं


अच्छी तरह प्रयोग किये गए श्रेष्ठ औषधि के समान

शुभ फल देने वाला होता है ।

शुभ में प्रवृत्तिकरने वाला होता है ।

आत्मा को परंपरा से मोक्ष सुख को देनेवाला होता है ।

इस कारण से, इस सूत्र को प्रतिबंध-नियाणा रहित


असुहभाव निराहेणं

सुहभाव बीअं ति,

सुप्पणिहाणं

सम्मं पढिअव्वं, सम्मं सोअव्वं

सम्मं अणुप्पेहिअव्वति ॥१८॥


अशुभ भावों को दूर करके,

शुभ भाव का बीज है ऐसा विचार करके

श्रेष्ठ प्रणिधान-ध्यान द्वारा

शांत मन से पढ़ना-पाठ करना, दूसरों के पास

से अच्छी तरह सुनना ।

और उसके अर्थ का सम्यक् चिंतन करना ।


|| अपनी शुभ भावना ||

नमो नमिअ-नमिआण-परम गुरुवीयरागाणं

नमो सेसनमुक्कारिहाणं

जयउ सव्वण्णुसासणं

परम संबोहिए सुहिणो भवतुजीवा,

सुहिणो भवतुजीवा, सुहिणो भवतुजीवा ॥१९॥


देवों से पूजित ऐसे इन्द्रों द्वारा नमन करए गए

परम गुरु वीतराग भगवंतों को नमस्कार हो ।

नमस्कार करने लायक दूसरे आचार्यादि गुणाधिकों

को नमस्कार हो ।

सर्वज्ञों का शासन जयवंत बनो

उत्तम सम्यक्त्व की प्राप्ति से सर्व जीव सुखी बनो,

सर्व जीव सुखी बनो, सर्व जीव सुखी बनो ॥

© Ashwin Jain Prabhu Bhakti

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