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Vairagya Bhavna

वैराग्य भावना | Vairagya Bhavna

Rageshree Anil Agarkar

Stotra

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Lyrics of Vairagya Bhavna by Stavan.co

(दोहा)

बीज राख फल भोगवे, ज्यों किसान जग-माँहिं |

त्यों चक्री-नृप सुख करे, धर्म विसारे नाहिं ||१||


(जोगीरासा व नरेन्द्र छन्द)

इहविधि राज करे नरनायक, भोगे पुण्य-विशालो |

सुख-सागर में रमत निरंतर, जात न जान्यो कालो ||

एक दिवस शुभ कर्म-संजोगे, क्षेमंकर मुनि वंदे |

देखि श्रीगुरु के पदपंकज, लोचन-अलि आनंदे ||२||


तीन-प्रदक्षिण दे सिर नायो, कर पूजा थुति कीनी |

साधु-समीप विनय कर बैठ्यो, चरनन-दृष्टि दीनी ||

गुरु उपदेश्यो धर्म-शिरोमणि, सुनि राजा वैरागे |

राज-रमा वनितादिक जे रस, ते रस बेरस लागे ||३||


मुनि-सूरज-कथनी-किरणावलि, लगत भरम-बुधि भागी |

भव-तन-भोग-स्वरूप विचार्यो, परम-धरम-अनुरागी ||

इह संसार-महावन भीतर, भरमत ओर न आवे |

जामन-मरन-जरा दव-दाहे, जीव महादु:ख पावे ||४||


कबहूँ जाय नरक-थिति भुंजे, छेदन-भेदन भारी |

कबहूँ पशु-परयाय धरे तहँ, वध-बंधन भयकारी ||

सुरगति में पर-संपति देखे, राग-उदय दु:ख होई |

मानुष-योनि अनेक-विपतिमय, सर्वसुखी नहिं कोई ||५||


कोई इष्ट-वियोगी विलखे, कोई अनिष्ट-संयोगी |

कोई दीन-दरिद्री विलखे, कोई तन के रोगी ||

किस ही घर कलिहारी नारी, कै बैरी-सम भाई |

किस ही के दु:ख बाहर दीखें, किस ही उर दुचिताई ||६||


कोई पुत्र बिना नित झूरे, होय मरे तब रोवे |

खोटी-संतति सों दु:ख उपजे, क्यों प्रानी सुख सोवे ||

पुण्य-उदय जिनके तिनके भी, नाहिं सदा सुख-साता |

यह जगवास जथारथ देखे, सब दीखे दु:खदाता ||७||


जो संसार-विषे सुख होता, तीर्थंकर क्यों त्यागे |

काहे को शिवसाधन करते, संजम-सों अनुरागे ||

देह अपावन-अथिर-घिनावन, या में सार न कोई |

सागर के जल सों शुचि कीजे, तो भी शुद्ध न होई ||८||


सात-कुधातु भरी मल-मूरत, चर्म लपेटी सोहे |

अंतर देखत या-सम जग में, अवर अपावन को है ||

नव-मलद्वार स्रवें निशि-वासर, नाम लिये घिन आवे |

व्याधि-उपाधि अनेक जहाँ तहँ, कौन सुधी सुख पावे ||९||


पोषत तो दु:ख दोष करे अति, सोषत सुख उपजावे |

दुर्जन-देह स्वभाव बराबर, मूरख प्रीति बढ़ावे ||

राचन-योग्य स्वरूप न याको, विरचन-जोग सही है |

यह तन पाय महातप कीजे, या में सार यही है ||१०||


भोग बुरे भवरोग बढ़ावें, बैरी हैं जग-जी के |

बेरस होंय विपाक-समय अति, सेवत लागें नीके ||

वज्र अगिनि विष से विषधर से, ये अधिके दु:खदाई |

धर्म-रतन के चोर चपल अति, दुर्गति-पंथ सहाई ||११||


मोह-उदय यह जीव अज्ञानी, भोग भले कर जाने |

ज्यों कोई जन खाय धतूरा, सो सब कंचन माने ||

ज्यों-ज्यों भोग-संजोग मनोहर, मन-वाँछित जन पावे |

तृष्णा-नागिन त्यों-त्यों डंके, लहर-जहर की आवे ||१२||


मैं चक्री-पद पाय निरंतर, भोगे भोग-घनेरे |

तो भी तनक भये नहिं पूरन, भोग-मनोरथ मेरे ||

राज-समाज महा-अघ-कारण, बैर-बढ़ावन-हारा |

वेश्या-सम लछमी अतिचंचल, याका कौन पत्यारा ||१३||


मोह-महारिपु बैरी विचारो, जग-जिय संकट डारे |

घर-कारागृह वनिता-बेड़ी, परिजन-जन रखवारे ||

सम्यक्-दर्शन-ज्ञान-चरण-तप, ये जिय के हितकारी |

ये ही सार असार और सब, यह चक्री चितधारी ||१४||


छोड़े चौदह-रत्न नवों निधि, अरु छोड़े संग-साथी |

कोटि-अठारह घोड़े छोड़े, चौरासी-लख हाथी ||

इत्यादिक संपति बहुतेरी, जीरण-तृण-सम त्यागी |

नीति-विचार नियोगी-सुत को, राज दियो बड़भागी ||१५||


होय नि:शल्य अनेक नृपति-संग, भूषण-वसन उतारे |

श्रीगुरु-चरण धरी जिन-मुद्रा, पंच-महाव्रत धारे ||

धनि यह समझ सुबुद्धि जगोत्तम, धनि यह धीरज-धारी |

ऐसी संपति छोड़ बसे वन, तिन-पद धोक हमारी ||१६||


(दोहा)

परिग्रह-पोट उतार सब, लीनों चारित-पंथ |

निज-स्वभाव में थिर भये, वज्रनाभि निरग्रंथ |

© Rajshri Soul

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