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Das (10) Lakshan Dharam Poojan

दशलक्षण धर्म पूजन | Das (10) Lakshan Dharam Poojan

पण्डित द्यानतराय

Stotra

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Lyrics of Das (10) Lakshan Dharam Poojan by Stavan.co

उत्तम छिमा मारदव आरजव भाव है,

सत्य शौच संयम तप त्याग उपाव हैं |

आकिंचन ब्रह्मचर्य धरम दस सार हैं,

चहुँगति दुखते काढि मुक्ति करतार हैं ||


ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमा-मार्दव-आर्जव-शौच-सत्य-संयम-तप-त्याग-आकिंचन-ब्रह्मचर्य-आदि-दसलक्षण-धर्माय ! अत्र अवतर अवतर संवौषट ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट !


हेमाचलकी धार,मुनि-चित सम शीतल सुरभि |

भव-.आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ||


ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमा-मार्दव-आर्जव-शौच-सत्य-संयम-तप-त्याग-आकिंचन-ब्रह्मचर्य-आदि-दसलक्षण-धर्माय जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाये जलं निर्वपामिति स्वाहा |


चन्दन केसर गार, होय सुवास दसों दिशा |

भव-.आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ||


ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमा-मार्दव-आर्जव-शौच-सत्य-संयम-तप-त्याग-आकिंचन-ब्रह्मचर्य-आदि-दसलक्षण-धर्माय संसारताप-विनाशनाये चन्दनं निर्वपामिति स्वाहा |


अमल अखंडित सार, तंदुल चन्द्र समान शुभ |

भव-.आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ||


ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमा-मार्दव-आर्जव-शौच-सत्य-संयम-तप-त्याग-आकिंचन-ब्रह्मचर्य-आदि-दसलक्षण-धर्माय अक्षय-पद प्राप्ताये अक्षतं निर्वपामिति स्वाहा |


फुल अनेक प्रकार, महके ऊरघ -लोकलों |

भव-.आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ||


ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमा-मार्दव-आर्जव-शौच-सत्य-संयम-तप-त्याग-आकिंचन-ब्रह्मचर्य-आदि-दसलक्षण-धर्माय काम-बाण विध्वंसनाये पुष्पं निर्वपामिति स्वाहा |


नेवज विविध निहार, उत्तम षट-रस संजुगत |

भव-.आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ||


ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमा-मार्दव-आर्जव-शौच-सत्य-संयम-तप-त्याग-आकिंचन-ब्रह्मचर्य-आदि-दसलक्षण-धर्माय क्षुधा-रोग विनाशनाये नैवेद्यं निर्वपामिति स्वाहा |


बाती कपूर सुधार, दीपक-जोती सुहावनी |

भव-.आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ||


ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमा-मार्दव-आर्जव-शौच-सत्य-संयम-तप-त्याग-आकिंचन-ब्रह्मचर्य-आदि-दसलक्षण-धर्माय मोहान्धकार-विनाशनाये दीपं निर्वपामिति स्वाहा |


अगर धुप विस्तार, फैले सर्व सुगन्धता |

भव-.आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ||


ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमा-मार्दव-आर्जव-शौच-सत्य-संयम-तप-त्याग-आकिंचन-ब्रह्मचर्य-आदि-दसलक्षण-धर्माय अष्ट-कर्म-दह्नाये धूपं निर्वपामिति स्वाहा |


फल की जाति अपार, घ्राण-नयन-मन-मोहने |

भव-.आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ||


ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमा-मार्दव-आर्जव-शौच-सत्य-संयम-तप-त्याग-आकिंचन-ब्रह्मचर्य-आदि-दसलक्षण-धर्माय महामोक्ष-फल प्राप्ताये निर्वपामिति स्वाहा |


आठो दरब संवार, धानत अधिक उछाहसौ |

भव-.आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ||


ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमा-मार्दव-आर्जव-शौच-सत्य-संयम-तप-त्याग-आकिंचन-ब्रह्मचर्य-आदि-दसलक्षण-धर्माय अनर्घ-पद-प्राप्तये अर्घं निर्वपामिति स्वाहा |


सोरठा:-


पीडे दुष्ट अनेक, बांध मार बहुविधि करम |

धरिये छिमा विवेक, कोप न कीजे पीतमा ||

उत्तम छिमा गहो रे भाई, इह-भव जस पर-भव सुखदाई |

गाली सुनि मन खेद न आनो, गुन को औगुन कहे अयानो ||

कहि हैं अयानो वस्तु छीने, बांध मार बहुविधि करे |

घर ते निकारे तन विदारे, बैर जो न तहां धरे ||

तै करें पूरब किये खोटे, सहे क्यों नहीं जियरा |

अति क्रोध अग्नि बुझाय प्रानी, साम्य-जल ले सीयरा ||१||


ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमा धर्मागाय अर्घं निर्वपामिति स्वाहा |


मान महाविषरूप, करहि नीच-गति जगत में |

कोमल सुधा अनूप, सुख पावे प्राणी सदा ||

उत्तम मार्दव गुन मनमाना, मान करन को कोन ठिकाना |

वस्यो निगोद माहि तै आया, दमरी रुकन भाग बिकाया ||

रुकन बिकाया भाग वशतै, देव एक-इंद्री भया |

उत्तम मुआ चांडाल हुवा, भूप कीड़ो में गया ||

जीतव्य जोवन धन गुमान, कहा करे जल-बुदबुदा |

करी विनय बहु-गुन बड़े जनकी, ज्ञान का पावे उदा ||२||


ॐ ह्रीं उत्तम-मार्दव धर्मागाय अर्घं निर्वपामिति स्वाहा |


कपट न कीजे कोई, चोरन के पूर ना बसे |

सरल सुभावी होय, ताके घर बहु सम्पदा ||

उत्तम आर्जव रीती बखानी, रंचक दगा बहुत दुःख दानी |

मन में हो सो वचन उचरिये, वचन होय सो तन से करिये ||

करिये सरल तिहु जोग अपने, देख निर्मल आरसी |

मुख करे जैसा लखै तेसा, कपट-प्रीति अंगारसी ||

नहिं लहे लछमी अधिक छल करि, कर्म-बन्ध विशेषता |

भय त्यागी दूध बिलाव पीवे, आपदा नहीं देखता ||३||


ॐ ह्रीं उत्तम-आर्जव धर्मागाय अर्घं निर्वपामिति स्वाहा |


धरी हिरिदे संतोष, करहु तपस्या देह सों |

शौच सदा निरदोष, धरम बड़ो संसार में ||

उत्तम शौच सर्व जग जाना, लोभ पाप को बाप बखाना |

आशा-पास महा दुःख दानी, सुख पावे संतोषी प्रानी ||

प्रानी सदा शुची शील जप तप, ज्ञान ध्यान प्रभाव तै |

नित गंग जमुन समुंद्र नहाये, अशुचि-दोष स्वाभाव तै ||

ऊपर अमल मल भरयो भीतर, कौन विधि घट सूचि कहे |

बहु देह मैली सुगुन-थैली, शौच-गन साधू लहे ||४||


ॐ ह्रीं उत्तम-शौच धर्मागाय अर्घं निर्वपामिति स्वाहा |


कठिन वचन मत बोल, पर निंदा अरु झूठ तज |

सांच जवाहर खोल, सतवादी जग में सुखी ||

उत्तम-सत्य-वरत पा लीजे, पर-विश्वातघात नहीं कीजे |

साचे-झूठे मानुष देखो, आपण पूत स्वपास न पेखो ||

पेखो तिहायत पुरुष साचे, को दरब सब दीजिये |

मुनिराज-श्रावक की प्रतिष्ठा, साँच गुण लख लीजिये ||

ऊँचे सिंहासन बैठे वसु नृप, धरं का भूपति भया |

वच झूठ सेती नरक पंहुचा, सुरग में नारद गया ||५||


ॐ ह्रीं उत्तम-सत्य धर्मागाय अर्घं निर्वपामिति स्वाहा |


काय छहों प्रतिपाल, पंचेन्द्रिय मन वश करो |

संयम रतन संभाल, विषय-चोर बहु फिरत हैं ||

उत्तम संयम गहू मन मेरे भव-भव के भाजे अघ तेरे |

सुरग-नरक पशुगति में नाही, आलस हरन करन सुख ठाही ||

ठाही पृथ्वी जल आग मारुत, रुख त्रस करुना धरो |

सपरसन रसना घ्रान नैना, कान मन सब वश करो ||

जिस बिना नहीं जिनराज सीझे, तू रुल्यो जग कीच में |

इक घरी मत विसरो करी नित, आव जम मुख बीच में ||६||


ॐ ह्रीं उत्तम-संयम धर्मागाय अर्घं निर्वपामिति स्वाहा |


तप चाहे सुरराय, करम शिखर को वज्र हैं |

द्वादस विधि सुखदाय, क्यों न करे निज शक्ति सम ||

उत्तम तप सब माहि बखाना, करम-शैल को वज्र समाना |

वस्यो अनादी निगोद मंझारा, भू विकलत्रय पशु तन धारा ||

धारा मनुष तन महादुर्लभ, सुकुल आयु निरोगता |

श्रीजैनवाणी तत्वज्ञानी, भई विषय-पयोगता ||

अति महा दुरलभ त्याग विषय, कषाय जो तप आदरै |

नर-भव अनुपम कनक घर पर, मणिमयी कलसा धरै ||७||


ॐ ह्रीं उत्तम-तप धर्मागाय अर्घं निर्वपामिति स्वाहा |


दान चार परकार, चार संघ को दीजिये |

धन बिजुली उनहार, नर-भव लाहो लीजिये ||

उत्तम त्याग कह्यो जग सारा, औषध शाष्त्र अभय सहारा |

निहचे राग द्वेष निरवारे, ज्ञाता दोनों दान संभारे ||

दोनों संभारे कूप-जल सम, दरब घर में परिनया |

निज हाथ दीजे साथ लीजे, खाय खोया बह गया ||

धनि साध शास्त्र अभय दिवैया, त्याग राग विरोध को |

बिन दान श्रावक साधू दोनों, लहैं नहीं बोध को ||८||


ॐ ह्रीं उत्तम-त्याग धर्मागाय अर्घं निर्वपामिति स्वाहा |


परिग्रह चौबीस भेद, त्याग करे मुनिराज जी |

तिसना भाव उछेद, घटती जान घटाइये ||

उत्तम अकिंचन गुण जानो, परिग्रह चिन्ता दुःख ही मानो |

फाँस तनस सी तन में साले, चाह लंगोटी की दुःख भाले ||

भाले न समता सुख कभी नर, बिन मुनि मुद्रा धरें |

धनि नगन पर तन-नगन ठाई, सुर-असुर पायनी परै ||

घरमाहीं तिसना जो घटावे, रूचि नहीं संसार सौ |

बहु धन बुरा हु भला कहिये, लीं पर उपगार-सौ ||


ॐ ह्रीं उत्तम-आकिंचन धर्मागाय अर्घं निर्वपामिति स्वाहा |


शील-बाढ़ नौ राख, ब्रह्मा भाव अंतर लखो |

करी दोनों अभिलाख, करहु सफल नरभव सदा ||

उत्तम ब्रह्मचर्य मन आनो, माता बहिन सुता पहिचानो |

सहे बान-वरषा बहु सुरे, टिके न नैन-बान लखि कुरे ||

कुरे तिया के अशुचि तन में, काम-रोगी रति करें |

बहु मृतक सडहिं मसान माहीं, काग ज्यो चोच भरे ||

संसार में विष बेल नारी, तजि गए जोगिश्वरा |

नत धरं दस पैडी चढ़ीके, शिव-महल में पग धरा ||


ॐ ह्रीं उत्तम-ब्रह्मचर्य धर्मागाय अर्घं निर्वपामिति स्वाहा |


जयमाला


दस लच्छन वंदो सदा, मनवांछित फलदाय |

कहो आरती भारती, हम पर होहु सहाय ||

उत्तम क्षिमा जहाँ मन होई, अंतर-बाहिर शत्रु न कोई |

उत्तम मार्दव विनय प्रकाशे , नाना भेद ज्ञान सन भासे ||

उत्तम आर्जव कपट मिटावे, दुरगति त्यागी सुगति उपजावे |

उत्तम सत्य वचन मुख बोले, सो प्राणी संसार न डोले ||

उत्तम शौच लोभ-परिहारी, संतोषी गुण-रतन भण्डारी |

उत्तम संयम पाले ज्ञाता, नर-भव सकल करे ले साता ||

उत्तम तप निर्वांछित पाले, सो नर करम-शत्रु को टाले |

उत्तम त्याग करे जो कोई, भोगभूमि-सुर-शिवसुख होई ||

उत्तम आकिंचन व्रत धारै, परम समाधी दसा विस्तारे |

उत्तम ब्रह्मचर्य मन लावे, नर-सुर सहित मुकती-फल पावे ||


ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमा-मार्दव-आर्जव-शौच-सत्य-संयम-तप-त्याग-आकिंचन-ब्रह्मचर्य-आदि-दसलक्षण-धर्माय जयमाला पूर्णार्घम निर्वपामिति स्वाहा |


दोहा:-


करे करम की निरजरा, भव पिंजरा विनाश |

अजर अमर पद को लहे, द्यानत सुख की राश ||


||इत्याशिर्वाद||


||पुष्पांजलि क्षिपित||

© Sarvodaya Ahimsa

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